Psalms - Chapter 36
Holy Bible

2 (1-2) दुष्ट के हृदय में पाप बोलता है, उसके हृदय में ईश्वर की श्रद्धा नहीं।
3) वह अपने को धोखा देता है, और अपना दोष स्वीकार करना नहीं चाहता।
4) वह पाप और कपट की बातें ही करता है; वह भलाई का बोध खो चुका है।
5) वह अपनी शय्या पर पाप की योजना बनाता है, उसने कुमार्ग पर चलने का संकल्प किया है, वह बुराई से घृणा नहीं करता।
6) प्रभु! तेरा प्रेम स्वर्ग तक फैला हुआ है, आकाश की तरह ऊँची है तेरी सत्यप्रतिज्ञता
7) ऊँचे पर्वतों के सदृश है तेरा न्याय, अथाह समुद्र के सदृश तेरे निर्णय। प्रभु! तू मनुष्यों और पशुओं की रक्षा करता है।
8) ईश्वर! कितनी अपार है तेरी सत्यप्रतिज्ञता। मनुष्यों को तेरे पंखों की छाया में शरण मिलती है।
9) तू उन्हें अपने घर के उत्तम व्यंजनों से तृप्त करता और अपने आनन्द की नदी का जल पिलाता है।
10) तू ही जीवन का स्रोत है, तेरी ही ज्योति में हम ज्योति देखते हैं।
11) अपने भक्तों के प्रति अपना प्रेम और धर्मियों के प्रति अपनी न्यायप्रियता बनाये रख।
12) घमण्डी का पैर मुझे नहीं रौंदे; दुष्टों का हाथ मुझे घर से न निकाले।
13) देखो! कुकर्मियों का पतन हो गया है, वे इस प्रकार पछाड़े गये कि उठ नहीं सकते।

Holydivine